चंडीगढ़: “यदि आप बोर हो रहे हैं और मनोरंजन चाहते हैं तो आप सिनेमा देखिए , पर यदि आप जीवन के बुरे दौर से गुज़र रहे हैं या साधारण जीवन जी रहे हैं तो रंगमंच देख लें और बेहतर होगा उसका हिस्सा ही बन जाइए”, आप जीवन में अद्भुत बदलाव का अनुभव करेंगे”
18th विंटर नेशनल थियेटर फेस्टिवल की 16 वीं रूबरू सेशन की शाम चर्चित रंगकर्मी और पंजाबी अभिनेता बनिंदर जीत सिंह के नाम रही। उन्होंने रूबरू की शुरुआत करते हुए बताया कि सच कहूं तो रंगमंच एक ऐसा आईना है जिसमें आप गहरे अंदर झांक कर जीवन की हर समस्या का निदान ढूंढ सकते हैं।
थिएटर से जुड़ने पर पूछे गए एक सवाल पर बनिंदरजीत सिंह बताते हैं कि उन्होंने थिएटर को नहीं बल्कि थिएटर ने उन्हें चुना। कह सकते हैं कि थिएटर में उनका आना अचानक से हुआ मगर उसमें बने रहना और बाकी जीवन बिता देना उनका सोच समझा हुआ निर्णय था। बनिंदर जीत ने यादों के गलियारों में झांकते हुए बताया कि मैं विज्ञान का एक औसत छात्र था , जो की एमबीए में भविष्य तलाश रहा था । सच कहूं तो मुझे इस बात का इल्म ही नहीं था कि रंगमंच नाम की भी कोई चीज होती है, ड्रामा की समझ केवल स्कूली स्तर के कॉमेडी स्किट तक ही सीमित थी । फिर जब मैंने खालसा कॉलेज में एडमिशन लिया तो यूथ फेस्टिवल के दौरान डॉ साहब सिंह से मुलाकात हुई। यूथ फेस्टिवल के वह दिन बड़े अदभुत थे ,मुझे लगा कि यह साधारण जीवन के मुकाबले कुछ अलग है। मुझे अपार सुकून का अनुभव हुआ और यही कारण था कि मैंन यूथ फेस्टिवल के बाद भी डॉ साहब सिंह के साथ रंगमंच जारी रखा। नाटकों के प्रति दीवानगी का आलम यह था कि चंडीगढ़ के किसी भी कोने में रंगमंच हो रहा हो , मैं नाटक देखने पहुंच जाता । पाठन से लेकर प्रस्तुति तक की प्रक्रिया को देखने, परखने और समझने लगा।
रंगमंच सफर के दौरान ही मेरी मुलाकात पंजाबी फिल्मों के चर्चित चेहरे हरीश वर्मा से हुई और उनके जरिए मैं सुदेश शर्मा जी से मिला। बस फिर क्या था सिलसिला चल निकला और रंगमंच की दुनिया के चर्चित निर्देशकों संगीता गुप्ता, अनीता शबदीश और डॉ आत्मजीत जी जैसे दिग्गजों के साथ काम करने का अवसर मिला । “बलदे टिब्बे” की मेरी पहली प्रस्तुति आज भी मुझे याद है और शायद ताउम्र जीवन के सबसे अविस्मरणीय क्षणों में वह जीवंत रहेगी।
थिएटर फार थिएटर के साथ जुड़ने का अनुभव यह रहा कि मुझे केवल रंगमंच की समझ ही नहीं, बल्कि थिएटर फेस्टिवल्स जैसे आयोजनों को सलीके से और सफलतापूर्वक कैसे आयोजित किया जा सकता है, यह भी जानने को मिला। शायद उसी का नतीजा है कि आज बीते 10 वर्षों में मैं और मेरा थिएटर ग्रुप इंपैक्ट आर्टस मिलकर 25 थिएटर फेस्टिवल्स का सफलतापूर्वक आयोजन कर चुके हैं और सौभाग्यशाली रहा की इन 10 वर्षों में मुझे लगभग 25 पंजाबी और हिंदी नाटक निर्देशित करने का मौका भी मिला। जहां से हौसला अफजाई हुई और मैंने लेखन में हाथ आज़माकर अनेक नुक्कड़ नाटक भी लिखे।
जिस तरह से थिएटर में आना तय नहीं था उसी तरह से सिल्वर स्क्रीन के बारे में भी सोचा तक नहीं था। मगर थिएटर में संयम और समय के साथ वक्त बिताया तो सिनेमा का रास्ता भी खुद-ब- खुद खुल गया और आज गुरुजनों के आशीर्वाद से दिलदारियां, निक्का जैलदार, चन्नो, लॉंग लाची और मस्ताने जैसी ऐतिहासिक फिल्म का हिस्सा बन पाया और आगामी वर्षों में भी कुछ मजेदार किरदार दशकों को देखने को मिलेंगे
मुंबई में बिताए गए समय पर पूछे गए एक सवाल पर बनिंदरजीत बताते हैं कि वह अपने दोस्त और साथी एक्टर हरीश वर्मा की सलाह पर ही मुंबई में किस्मत आजमाने गए थे और लगभग 6 महीने के संघर्ष के बाद ही उन्हें नीरू बाजवा और हरीश वर्मा अभिनीत फिल्म आर.एस.वी.पी में काम मिला जिसकी शूटिंग पंजाब में होनी थी । उस फिल्म में निभाया किरदार घर-घर पहचाना जाने लगा और पंजाब में ही बेहतर काम मिलने लगा तो वापस मुंबई जाने की इच्छा ही नहीं हुई ।
युवाओं को सलाह देते हुए बनिंदरजीत सिंह बताते हैं
कि सिनेमा या रंगमंच ही नहीं आप किसी भी क्षेत्र में हाथ आज़माना चाहते हैं, तो उसमें आपको कुछ वक्त तक संयम के साथ बने रहना बहुत जरूरी है। हो सकता है आपको परिणाम मिलने में कुछ वक्त लगे मगर वह स्थाई परिणाम होगा, क्षणिक नहीं । मैं स्वयं आज भी प्रयास करता हूं किसी फिल्म या नाटक की प्रस्तुति देखते वक्त कि उसके अभिनय ,कैमरा वर्क और अन्य तकनीकी पहलुओं को बारीकी से समझा जाए, ताकि मैं खुद को हर रोज़ और बेहतर कर सकूं।